| छप्पय कविता का भावार्थ |
-: परिचय जीवन परिचय :-
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छप्पय नाभादास ( 1 )
भगति विमुख जे धर्म सो सब अयर्भ करि गाए ।
योग या त दान भजन बिनु तुच्छ दिखाए ।।
हिंदू तुरक प्रमान रमेनी सबदी साधी ।
पक्षपात नहि बचन सबहिके हितकी भाषी ।।
आरूढ़ दशा है जगत पै , मुख देखी नाहीं भनी ।
कबीर कानि राखी नहीं , वर्णाश्रम घट दर्शनी ।।
संबंध / प्रसंग :- प्रस्तुत छप्पय नाभादास के द्वारा रचित लेख ' भक्तमाल ' से लिया गया है. इस छप्पय में नाभादास ने क्रांतिकारी कवि कबीर की मति की गंभीरता तथा अंतःकरण की भक्ति से पूर्णता का वर्णन किया है. यह छप्पय कबीर से संबंधित [ Related ] उनके पुरे अध्ययन तथा विवेचन का सार-सूत्र है.
छप्पय - नाभादास व्याख्या / अर्थ ( 1 )
नाभादास जी कहते हैं कि कबीर जी की मति बहुत गंभीर तथा अन्तः करण भक्तिरस से भरपूर था. जाति - पाति वर्णाश्रम आदि साधारण धर्मों को वो नहीं मानते थे. उन्होंने केवल श्री भक्ति [ भागवत धर्म ] को ही दुढ़ किया था. उनके अनुसार जो भी धर्म भक्ति से विमुख करते हैं, उन सभी को अधर्म ' ही कहा जा सकता है. उन्होंने सच्चे उदय के बिना किए गए भजन , बंदगी के बगेर तप , योग , यज्ञ , दान , व्रत आदि को तुच्छ एवं अमहत्व बताया है.
कबीर के रमैनी , शब्द , साखी आदि इस बात के प्रामाण हैं कि उन्होंने हिन्दु तया मुस्लमानों के बीच कोई भी और कभी भी पक्षपात नहीं किया है. उनके वचनों में तो सिर्फ़ सबके हित की बात नजर आती है. कबीर जाति - पाति के भेदभाव से ऊपर उठकर केवल शुद्ध अन्तः करण से की गई भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं. तथा वे जगत की दशा के अनुरूप चलते हुए मुंह देखकर बात करने वालो में से नहीं हैं. उन्होंने वर्णाधम के सभी छः/06 दर्शनों की सच्चाई को खोलकर सामने रख दिया है तथा किसी के प्रति कभी भी पक्षपात नहीं किया है.
छप्पय नाभादास ( 2 )
उक्ति चोज अनुप्रास वर्ण अस्थिति अतिभारी ।
बचन प्रीति निर्वही अर्थ अद्भुत तुकधारी ।।
प्रतिबिंबित दिवि दृष्टि हृदय हरि लीला भासी ।
☞ जन्म कर्म गुन रूप सबहि रसना परकासी ।।
विमल बुद्धि हो तासुकी , जो यह गुन श्रवननि परे ।
सूर कवित सुनि कौन कवि , जो नहि शिरचालन करे ।।
संबंध / प्रसंग :- प्रस्तुत छप्पय नाभादास द्वारा रचित ' भक्तमाल ' से लिया गया है. इस छप्पय में कवि ने सूरदास के काव्य की विभिन्न विशेषताओं का सुन्दर वर्णन किया है.
2 Comments
Very Very Nice Exaplation 👍
ReplyDeletegood
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